दोस्तों, आज हम बात करेंगे नेपाल के राजनीतिक इतिहास की। यह एक ऐसी कहानी है जो सदियों पुरानी है, जिसमें राजशाही, लोकतंत्र और उथल-पुथल के कई दौर शामिल हैं। नेपाल, जो अपने हिमालयी वैभव और सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जाना जाता है, उसका राजनीतिक सफर भी उतना ही दिलचस्प और जटिल रहा है। हम जानेंगे कि कैसे इस छोटे से देश ने अपनी संप्रभुता को बनाए रखा और समय के साथ बदलते राजनीतिक परिदृश्यों का सामना किया।

    प्राचीन और मध्यकालीन नेपाल

    नेपाल का राजनीतिक इतिहास प्राचीन काल से ही शुरू हो जाता है। लिच्छवी काल (लगभग 400-750 ईस्वी) को नेपाल के इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस दौरान, देश में एक मजबूत और सुसंगठित प्रशासन था। लिच्छवी राजाओं ने कला, संस्कृति और वास्तुकला को बढ़ावा दिया, और काठमांडू घाटी का काफी विकास हुआ। उनके शासनकाल में, नेपाल ने पड़ोसी भारतीय राज्यों के साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध बनाए रखे। इस काल की राजनीतिक संरचना काफी हद तक सामंती थी, जिसमें राजा सर्वोच्च होता था, लेकिन स्थानीय जागीरदार और अधिकारी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। हमें यह भी समझना होगा कि उस समय नेपाल आज की तरह एक एकीकृत राष्ट्र नहीं था, बल्कि विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों और गणराज्यों का समूह था। लिच्छवी वंश के पतन के बाद, मल्ल राजवंश का उदय हुआ, जिसने लगभग 600 वर्षों तक शासन किया। मल्ल राजाओं ने नेपाल को कई स्वतंत्र राज्यों में विभाजित कर दिया, जिनमें काठमांडू, पाटन और भक्तपुर प्रमुख थे। इन राज्यों के बीच अक्सर प्रतिद्वंद्विता और युद्ध होते रहते थे, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी एक अलग पहचान भी बनाए रखी। मल्ल काल में भी कला, साहित्य और व्यापार का विकास जारी रहा। वे कला और धर्म के संरक्षक थे, और इस काल की कई महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहरें आज भी मौजूद हैं। मध्यकालीन नेपाल की राजनीतिक स्थिति अत्यंत विकेन्द्रीकृत थी, जहाँ राजाओं की शक्ति स्थानीय सरदारों और शक्तिशाली परिवारों द्वारा संतुलित होती थी। यह विभाजन बाद में गोरखाओं के एकीकरण के प्रयासों के लिए एक आधार बना।

    गोरखाओं का उदय और एकीकरण

    नेपाल के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 18वीं शताब्दी में पृथ्वी नारायण शाह के नेतृत्व में गोरखाओं ने अपना विस्तार शुरू किया। पृथ्वी नारायण शाह, जो गोरखा राज्य के राजा थे, उन्होंने एक कुशल सैन्य रणनीति और कूटनीति का उपयोग करके काठमांडू घाटी पर विजय प्राप्त की और 1768 में आधुनिक नेपाल की नींव रखी। उनका लक्ष्य था नेपाल को विभिन्न छोटे राज्यों से एकीकृत करना और एक मजबूत केंद्रीय सत्ता स्थापित करना। उन्होंने न केवल अपनी सैन्य विजयों से नेपाल को एकीकृत किया, बल्कि उन्होंने देश की आंतरिक संरचना को भी मजबूत करने का प्रयास किया। गोरखाओं के शासन के तहत, एक केंद्रीकृत प्रशासन प्रणाली विकसित हुई, और देश की सीमाएं विस्तारित हुईं। हालाँकि, गोरखा शासन के शुरुआती दौर में भी आंतरिक संघर्ष और सत्ता के लिए संघर्ष जारी रहा। पृथ्वी नारायण शाह के बाद, उनके उत्तराधिकारियों ने साम्राज्य का विस्तार जारी रखा, लेकिन जल्द ही उन्हें बाहरी शक्तियों, विशेष रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से चुनौती मिली। 1814-1816 का एंग्लो-नेपाल युद्ध नेपाल के इतिहास में एक निर्णायक क्षण था। इस युद्ध में नेपाल को ब्रिटिश सेना के हाथों हार का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप सुगौली संधि हुई। इस संधि के तहत, नेपाल ने अपने क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिशों को सौंप दिया, लेकिन अपनी संप्रभुता को बनाए रखने में कामयाब रहा। यह संधि नेपाल के भविष्य के राजनीतिक संबंधों और उसकी बाहरी नीतियों को आकार देने में महत्वपूर्ण साबित हुई। गोरखाओं के एकीकरण के बाद, नेपाल एक एकीकृत राष्ट्र के रूप में उभरा, लेकिन उसकी राजनीतिक स्थिरता अभी भी एक चुनौती बनी हुई थी।

    राणा शासन और राजशाही का प्रभुत्व

    नेपाल का राजनीतिक इतिहास का एक लंबा और जटिल अध्याय राणा शासन का है, जो 1846 से 1951 तक चला। इस अवधि में, नेपाल की वास्तविक सत्ता राजाओं के हाथों से निकलकर **'जंग बहादुर राणा'** नामक एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के परिवार में चली गई। राणा शासक **'महाराजाधिराज'** की उपाधि धारण करते थे और उन्होंने वंशानुगत प्रधानमंत्रित्व प्रणाली स्थापित की। वे राजा को केवल एक नाममात्र का मुखिया बनाकर रखते थे। राणा शासन की शुरुआत में, देश में काफी अराजकता और राजनीतिक अस्थिरता थी। 1846 में, **'कोट पर्व'** नामक एक हिंसक घटना में, जंग बहादुर राणा ने अपने विरोधियों का सफाया कर सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके बाद, राणाओं ने लगभग एक सदी तक नेपाल पर शासन किया। उनका शासन **निरंकुश और तानाशाही** प्रकृति का था। उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता को कुचल दिया, और लोगों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। राणाओं ने देश के संसाधनों का दोहन अपने हित में किया और नेपाल को काफी हद तक बाहरी दुनिया से अलग-थलग रखा। उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और आधुनिकीकरण के क्षेत्र में बहुत कम ध्यान दिया, जिससे देश का विकास बाधित हुआ। हालाँकि, यह भी सच है कि राणाओं ने नेपाल की संप्रभुता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के दौरान। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन भी किया, जिससे नेपाल की अंतरराष्ट्रीय स्थिति मजबूत हुई। लेकिन आम जनता राणा शासन से तंग आ चुकी थी और **लोकतंत्र की मांग** जोर पकड़ रही थी।

    लोकतंत्र की ओर पहला कदम: 1951 की क्रांति

    राणा शासन की तानाशाही और निरंकुशता के खिलाफ जनता का असंतोष बढ़ता जा रहा था। नेपाल के राजनीतिक इतिहास में 1951 का वर्ष एक क्रांति का वर्ष साबित हुआ, जिसने देश को राजशाही और राणाओं के चंगुल से मुक्त कराकर लोकतंत्र की ओर पहला कदम बढ़ाया। इस क्रांति का नेतृत्व त्रिभुवन वीर विक्रम शाह, जो उस समय के राजा थे, और नेपाल की कांग्रेस पार्टी ने किया। राजा त्रिभुवन, जो राणाओं के नियंत्रण में थे, उन्होंने गुप्त रूप से आंदोलनकारियों का समर्थन करना शुरू कर दिया। उन्होंने भारत में शरण ली और वहां से राणा शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाई। दिल्ली में, राजा त्रिभुवन ने नेपाली कांग्रेस के नेताओं के साथ मिलकर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे **'दिल्ली समझौता'** कहा जाता है। इस समझौते के तहत, राणा शासन को समाप्त कर दिया गया और एक **संवैधानिक राजशाही** की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1951 में, नेपाल में पहली बार बहुदलीय सरकार का गठन हुआ, जिसमें राजा को राष्ट्रप्रमुख और प्रधानमंत्री को सरकार का मुखिया बनाया गया। यह नेपाल के लिए एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन था। इसने देश को आधुनिकीकरण और विकास के पथ पर अग्रसर होने का अवसर दिया। हालाँकि, यह एक नाजुक दौर था, और नई स्थापित की गई लोकतांत्रिक व्यवस्था को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। राजनीतिक अस्थिरता, सत्ता के लिए संघर्ष और नौकरशाही की समस्याएं आम थीं।

    लोकतंत्र का उतार-चढ़ाव: 1950 से 1990 तक

    1951 की क्रांति के बाद, नेपाल का राजनीतिक इतिहास एक नए और अस्थिर चरण में प्रवेश कर गया। यह वह दौर था जब देश लोकतंत्र को अपनाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसे कई आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 1959 में, नेपाल में पहला आम चुनाव हुआ, जिसमें नेपाली कांग्रेस ने भारी जीत हासिल की और बी.पी. कोइराला देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री बने। यह एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने नेपाल में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की उम्मीद जगाई। हालाँकि, यह उम्मीद ज्यादा समय तक नहीं टिकी। 1960 में, राजा महेंद्र वीर विक्रम शाह, जो राजा त्रिभुवन के पुत्र थे, उन्होंने बी.पी. कोइराला की सरकार को बर्खास्त कर दिया और देश में **'पंचायती राज'** व्यवस्था की शुरुआत की। पंचायती राज एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें राजा के पास सारी शक्तियां केंद्रित थीं और राजनीतिक दलों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। राजा महेंद्र का तर्क था कि लोकतंत्र नेपाल की संस्कृति के लिए उपयुक्त नहीं है और पंचायती राज ही देश के लिए सबसे अच्छा शासन मॉडल है। अगले तीन दशकों तक, नेपाल में राजाओं का शासन जारी रहा, हालाँकि बीच-बीच में राजनीतिक सुधारों की मांग उठती रही। 1980 के दशक के अंत में, नेपाल में लोकतंत्र की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी। जनता सड़कों पर उतर आई और राजाओं के निरंकुश शासन के खिलाफ आवाज उठाई। यह **'जन आन्दोलन'** (जन आंदोलन) 1990 में अपने चरम पर पहुंच गया।

    1990 की जन आन्दोलन और बहुदलीय लोकतंत्र की बहाली

    नेपाल का राजनीतिक इतिहास एक बार फिर तब करवट लेने लगा जब 1990 में एक बड़े **'जन आन्दोलन'** (जन आंदोलन) ने देश को हिलाकर रख दिया। लगभग तीन दशकों के **'पंचायती राज'** के तानाशाही शासन के बाद, जनता लोकतंत्र की बहाली के लिए सड़कों पर उतर आई थी। इस आंदोलन का नेतृत्व नेपाली कांग्रेस और संयुक्त वाम मोर्चा (United Left Front) जैसे प्रमुख राजनीतिक दलों ने किया था। लाखों लोग काठमांडू और अन्य शहरों में विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए, जिसमें शांतिपूर्ण जुलूस, हड़तालें और धरने शामिल थे। लोगों की मांग थी कि राजा के निरंकुश शासन को समाप्त किया जाए, राजनीतिक दलों पर से प्रतिबंध हटाया जाए और एक बहुदलीय संसदीय प्रणाली की स्थापना की जाए। इस जन आंदोलन का दबाव इतना बढ़ गया कि तत्कालीन राजा **वीरेंद्र वीर विक्रम शाह** को झुकना पड़ा। अप्रैल 1990 में, राजा वीरेंद्र ने पंचायती राज को समाप्त कर दिया और एक **संवैधानिक राजशाही** और **बहुदलीय लोकतंत्र** की बहाली की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप, नेपाल में एक नया संविधान लागू किया गया, जिसमें राजा राष्ट्रप्रमुख बने रहे, लेकिन वास्तविक कार्यकारी शक्तियां चुनी हुई संसद और सरकार के पास आ गईं। 1991 में, नेपाल में आम चुनाव हुए, जिसमें नेपाली कांग्रेस फिर से सत्ता में आई। यह नेपाल के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जिसने देश को फिर से लोकतांत्रिक रास्ते पर ला खड़ा किया। हालाँकि, बहुदलीय लोकतंत्र की बहाली के बाद भी, नेपाल को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार और नक्सलवादी आंदोलन का उदय शामिल था।

    माओवादी विद्रोह और गृह युद्ध

    नेपाल के राजनीतिक इतिहास का सबसे दर्दनाक और उथल-पुथल भरा दौर **माओवादी विद्रोह** और उसके कारण हुए **गृह युद्ध** का था, जो 1996 से 2006 तक चला। इस विद्रोह का नेतृत्व **'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी)'** ने किया था, जिसका उद्देश्य राजशाही को उखाड़ फेंकना और एक **'जनवादी गणराज्य'** की स्थापना करना था। माओवादियों का कहना था कि 1990 के बाद स्थापित हुई संसदीय व्यवस्था ने आम लोगों की समस्याओं का समाधान नहीं किया है और यह व्यवस्था भ्रष्ट और अप्रभावी है। उन्होंने ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की और सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिया। इस गृह युद्ध ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग विस्थापित हुए और देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा। इस संघर्ष ने न केवल आम नागरिकों को बल्कि सेना, पुलिस और माओवादी लड़ाकों को भी प्रभावित किया। इस दौरान, नेपाल की राजनीतिक स्थिति अत्यंत अस्थिर हो गई। विभिन्न सरकारों का आना-जाना लगा रहा, लेकिन कोई भी स्थायी समाधान निकालने में सफल नहीं हो सका। 2001 में, शाही परिवार के एक दुखद नरसंहार में, राजा वीरेंद्र और उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की मृत्यु हो गई, जिसके बाद राजा ज्ञानेंद्र गद्दी पर बैठे। राजा ज्ञानेंद्र ने 2005 में आपातकाल की घोषणा कर दी और सीधे शासन अपने हाथ में ले लिया, जिससे माओवादी और अन्य राजनीतिक दलों के बीच संघर्ष और तेज हो गया।

    गणतंत्र की स्थापना और वर्तमान स्थिति

    नेपाल का राजनीतिक इतिहास एक नए युग में प्रवेश कर गया जब 2006 में माओवादी विद्रोह का अंत हुआ और 2008 में **गणतंत्र की स्थापना** हुई। सात साल के खूनी गृह युद्ध और व्यापक राजनीतिक उथल-पुथल के बाद, नेपाली कांग्रेस, माओवादी और अन्य राजनीतिक दलों के बीच एक ऐतिहासिक शांति समझौता हुआ। इस समझौते के तहत, माओवादियों ने हथियार डाल दिए और एक अंतरिम सरकार में शामिल हो गए। 2008 में, नेपाल की संविधान सभा ने **राजशाही को समाप्त** करने और देश को **संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य** घोषित करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया। यह नेपाल के लिए एक बड़ा बदलाव था, जिसने सदियों पुरानी राजशाही को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। 2008 में, नेपाल के पहले राष्ट्रपति राम बरन यादव चुने गए। इसके बाद, देश को एक नया संविधान बनाने की चुनौती का सामना करना पड़ा, जो 2015 में लागू हुआ। इस नए संविधान ने नेपाल को सात संघीय राज्यों में विभाजित किया और एक **अध्यक्षीय प्रणाली** की ओर झुकाव दिखाया, जहाँ राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख और प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख होते हैं। हालाँकि, गणतंत्र की स्थापना के बाद भी, नेपाल को राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक विकास हासिल करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन और सत्ता परिवर्तन आम बात रही है। 2017 में, के.पी. शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के विलय से बनी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (NCP) ने चुनाव जीता और सरकार बनाई। वर्तमान में, नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी यात्रा जारी रखे हुए है, जहाँ लोकतंत्र को मजबूत करने और देश के विकास को गति देने के प्रयास जारी हैं।

    निष्कर्ष

    संक्षेप में, नेपाल का राजनीतिक इतिहास एक साहसिक यात्रा रही है, जो प्राचीन काल की राजशाही से लेकर वर्तमान के संघीय गणराज्य तक फैली हुई है। यह देश सदियों से अपने संप्रभुता की रक्षा करता आया है और लोकतंत्र के लिए कई संघर्षों से गुजरा है। गोरखाओं के एकीकरण से लेकर राणा शासन की तानाशाही, 1951 की क्रांति, 1990 के जन आंदोलन, माओवादी विद्रोह और अंततः 2008 में गणतंत्र की स्थापना तक, नेपाल ने राजनीतिक अस्थिरता और परिवर्तन के कई दौर देखे हैं। आज, नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए है, लेकिन उसे अभी भी राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक विकास और सामाजिक समानता जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। नेपाल का यह राजनीतिक सफर हमें सिखाता है कि लोकतंत्र का मार्ग हमेशा सरल नहीं होता, लेकिन जनता की इच्छाशक्ति और संघर्ष से बड़े से बड़े बदलाव संभव हैं।